मई दिवस मनाकर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेना ही पर्याप्त नही है, कामगारों की वास्तविक हालत अत्यन्त शोचनीय है जिसे बदल्ने के लिए वास्तव मे कुछ नये कदम उठाए जाने चाहिए. सरकार द्वारा मनरेगा चलाकर , न्युनतम मजदूरी भत्ता बढाकर उन्हे लाभ देने का प्रयास किया जा रहा है, पर पता नही क्यों सत्ता के सहयोगी, और देश के बुद्धिजीवी अर्थशास्त्री इस बात का महत्व् नही समझते की बढाई गई मजदूरी और कामगारों के भत्ते की वृद्धि का अनुपात क्या है और इसी के समानुपातिक बढ्ने वली महंगाई का अनुपात क्या है? जी हाँ, यह सच है कि मह्गाई की वृद्धि दर ज्यादा है और इसी कारण निम्न स्तर की क्रय शक्ति मे कोई परिवर्तन नही आ रहा. गरीबी मपने का कोई निश्चित पैमाना नही है हमारे पास , गरीबी के नीचे जीवन यापन करने वालों के लिए २००६ का सरकारी पैमाना है एक ग्रामीण भारतीय के लिए ३६८ रुपये प्रतिमाह और एक शहरी भारतीय के लिए ५६० रुपये प्रतिमाह . क्या आप सोच सकते है कि इस न्युनतम स्तर पर कितने प्रतिशत लोग अपना जीवन यापन करते हैं ? वास्तव मे यदि इस आंकडे को वास्तविकता के धरातल पर लाया जाए तो इसको कम से कम 2000 रुपये प्रतिमह होना चाहिए और यदि ऐसा हुआ तो बी पी एल की संख्या स्वतः ही कई गुना बढ जाएगी जिसे छुपाए रखने के लिए सरकार इस्की सीमा को आगे नही करना चाह्ती .
गरीबी जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार का न चेतना और सिर्फ भाषनों से काम चलाकर इसको खतम करने का आश्वासन देना सिर्फ एसलिये है कि ये गरीब भोली और नासमझ जनता ही बह्कावे मे आकार जाति और धर्म के नाम पर मतदान करती है.
ऐसे मे यह हमारी जिम्मेदारी है कि जहाँ तक हो सके गरीबों का जीवन स्तर उपर उठने के लिए प्रयास किया जाए चाहे वह अर्थ दान हो, रोजगार हो, जागरुकता और प्रोत्साहन हो, शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र मे सहयोग हो,या फिर कुछ और , हम सब कहीं न कहीं इसमे अपना योगदान प्रस्तुत कर सकते है और ये योगदान हमे सरकारी आंकडे वाले गरीबों के लिए ही नही बल्कि वास्तविक रुप से हर जरुरतमंद गरीब के लिए देना होगा.
व्यवस्था परिवर्तन के लिए हमे ही विकास करना होगा....
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